आर्य विरक्त (वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम) :
आदि से वर्तमान तक
सम्पूर्ण विश्व के सर्वतोमुखी उत्थान के उद्देश्य से महर्षि दयानंद सरस्वती ने सन१८७५ ई में आर्यसमाज नाम से एक संगठन का गठन किया था । उनकी सम्मति में संसार का उपकार करना अर्थात शारीरिक,आत्मिक और सामजिक उन्नति करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है । उनका चरम लक्ष्य यह था की संसारभर के सभी निवासी आर्य या श्रेष्ठ होकर एक विश्वव्यापी संगठन में संगठित हो जाएँ । यहाँ आर्य से उनका अभिप्राय ईसाई ,मुसलमान ,बौद्ध आदि के समान किसी सम्प्रदाय विशेष के अनुयायिओं या किसी पृथक जाति विशेष के अनुयायिओं या किसी पृथक जाति विशेष से नहीं था ,वरन उन्हीने जो श्रेष्ठ स्वभाव,धर्मात्मा,परोपकारी ,सत्यविद्यादि गुणयुक्त और आर्यावर्त देश में सब दिन रहने वाले हैं उन्हें ही आर्य कहा है महर्षि की यह भी मान्यता थी कि यह महत्वपूर्ण कार्य विश्व के सर्वश्रेष्ठ देश आर्यावर्त (भारत) में ही संपन्न किया जा सकता है,पुरातन काल से भारत और उसके निवासी आर्य लोग राजनीतिक ,धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में विश्व का नेतृत्व करते भी रहें हैं,क्योंकि वे श्रेष्ठ थे ,उनका सामाजिक जीवन आदर्श था ,और वे वेदों द्वारा प्रतिपादित सदाचार क नियमों का अविकल रूप से पालन करते थे ।
महर्षि दयानंद की कल्पना थी कि आर्यावर्त के लोग एक बार विश्व का नेतृत्व करेंगे,वशर्ते वो सच्चे अर्थों में आर्य हों । महर्षि की यही कल्पना आर्यसमाज की स्थापना के साथ साकार भी हुई | यह इसी तथ्य से स्पष्ट होता है कि जिस संगठन की स्थापना महर्षि ने पहले भारत से की थी ,वह प्रवासी भारतियों के प्रयास से एक विश्वव्यापक संगठन क रूप में खड़ा हो गया है भारत क प्रत्येक नगर नगर और गॉव-गॉव में तो आर्यसमाज है ही ,भारत से बाहर के देशों – अफ्रीका ,मॉरीशस ,फ़िजी ,सूरीनाम ,गयाना ,केनिया ,तंजानिया,ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र ,कनाडा ,हॉलैंड ,वर्मा ,सिंगापुर ,थाईलैंड आदि में भी आर्यसमाजें स्थापित हो चुकी है और पल्लवित एवं पुष्पित हो रही है । वर्तमान में विश्व भर की आर्यसमाजों की संख्या लगभग 5000 से अधिक हो गयी हैं | इस सम्पूर्ण विस्तार का श्रेय जन साधारण की श्रद्धा एवं आर्यजगत के समर्पित जीवन सन्यासिनों,वनप्रस्थियों ,विद्धान प्रचारकों तथा सक्रिय कार्यकर्ताओं की निष्ठां और कर्मठता को ही जाता है |
आर्य वानप्रस्थ आश्रम के सूत्रधार एवं संस्थापक
महर्षि दयानंद ने विश्व को आर्यमय बनाने की दृष्टि से आर्यसमाज की स्थापना की थी तथा आर्यसमाज में महर्षि के मंतव्यों के अनुसार swamiयुवक-युवतियों की ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा-दीक्षा हेतु गुरुकुल की स्थापना का बीड़ा उठाया। परिणामत: महात्मा मुंशीराम ने पर्वतों की उपत्यकाओं के बीच गंगा तट पर बसे हरिद्वार स्थित कांगड़ी ग्राम में देश के प्रथम गुरुकुल की स्थापना की। इसी के साथ स्थान-स्थान पर अनेक गुरुकुल एवं कन्या गुरुकुल स्थापित हो गए। परंतु महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत दूसरे अनिवार्य आश्रम वानप्रस्थ की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। आर्यसमाज के तपोनिष्ठ नेता महात्मा नारायण स्वामी जी ने इस अभाव को अनुभव किया और 30 मार्च 1928 को हरिद्वार के समीपस्थ नगर ज्वालापुर के निकट निर्मल,अविरल बहती पावनी गंगा के किनारे तत्कालीन आरणयक प्रदेश में देश के इस प्रथम आर्य विरक्त वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम की स्थापना की।
उस समय संभवता: महात्मा जी को यह कल्पना भी नहीं होगी कि बीज रूप में रोपित यह आश्रम उनके उत्तरवर्ती साधकों की साधना से निरंतर पल्लिवत एवं पुष्पित होता हुआ एक विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेगा। जिसकी छाया से वृद्ध माता-पिता अनुप्राणित होते रहेंगे। वस्तुत: ये वानप्रस्थी एवं संन्यासी साधक-साधिकाओं को न केवल सर्वाधिक सुख सुविधाएं उपलब्ध कराने वाला विश्व का एक मात्र तथा गतिविधियों की दृष्टि से अग्रगण्य आश्रम है, अपितु स्वाध्याय, सत्संग, साधना एवं वेदप्रचार का अनूठा संगम स्थल भी है।
आर्य समाज के दस नियमों में तीसरा नियम है : ” वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है , वेद का पढ़ना – पढ़ाना और सुनना – सुनाना सब आर्यो का परम धर्म है। ” वस्तुतः चारों वेद – वेदांग , उपनिषदों , ब्राह्मण ग्रन्थ आदि में ज्ञान का अथाह सागर है । यह प्रत्येक मानव को मननशील एवं चिंतक होने का सन्देश देते हैं । इनमें निहित ज्ञान से मानव मात्र का कल्याण हो है। यही कारण है कि महर्षि दयानन्द ने वेद एवं आर्ष – ग्रंथों की उपादेयता पर ओजपूर्ण वक्तव्य दिये और आर्यों को उन्हें सुरक्षित रखने की प्रेरणा दी। वैदिक साहित्य में विद्यमान ज्ञान – विज्ञान का लाभ उठाने के लिए यह आवश्यक है कि उनका गहन अध्ययन – अध्यापन किया जाये। यही इस आश्रम के उद्देश्यों का मुख्य अंग है।
आर्य वानप्रस्थ आश्रम के विकास पुरुष - महात्मा हर – प्रकाश जी
Date of Birth : 29 September 1888
Date of Death : 23 December 1974
सृष्टि के संचालन के लिए जिस प्रकार उष्मा, प्रकाश, जलीय तत्व की आवश्यकता होती है उसी प्रकार समाज राष्ट्र एवं मानवता को ठीक उसी प्रकार से संचालित करने के लिए कुछ ऐेसे व्यक्तियों की आवश्यकता होती है जो समाज को सामान्य स्तर से ऊपर उठकर उनकर सही दिशा का निर्देश कराए। इस गुण के कारण ही वे समाज से पृथक होते हैं एवं इसी गुण के कारण समाज से पृथक होकर वे निर्देशन करने में सक्षम होते हैं, उनकी यही विशेषता उनकी पहचान होती है। व्यावत्तर्क विशेषण भविति सामान्य से किसी वस्तु को पृथक करने वाली वस्तु का नाम विशेषण होता है। ये विशेषण ही उसका भूषण होता है। ऐसे ही भूषण से सुसज्जित थे महात्मा हरप्रकाश जी। वे बचपन से सेवा मूर्ति थे मातृ शक्ति का सदैव सम्मान तथा दूसरों के साथ विनम्रता का व्यवहार करना उनके आचरण में था। मानस सेवा उनके रोम-रोम में बसी थी। जात-पात छुआछूत के तथा जीव हत्या के
विरूद्ध थे। महात्मा नरायण स्वामी के निधन के बाद परिस्थितियों के चक्र की सीमाओं को लांघकर महात्मा हरप्रकाश जी ने आश्रम की व्यवस्था की बागडोर संभाली।
महात्मा जी के आने के बद आश्रम का चमत्कारी रूप से विकास होने लगा। जो आश्रम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा। महात्मा नारायाण स्वामी जी के समय लगभग दस कुटियाओं से बढ़कर 350 कुटियाएं मुख्य आश्रम में हो गई। दूसरे चरण में गंगा नहर की ओर शाखा एक में लगभग 26 कुटिया बनाई गई। तथा गंगनहर पर स्नान घाट बनवाया। अब पास में केवल रेलवे स्टेशन की ओर जगह बची थी। उसे भी खरीदकर सन 1997 में तीसरे चरण में शाखा नंबर दो का काम शुरू करा दिया। इसमें भी लगभग 80 कुटियाएं बनवाई। आश्रमवासियों के अनिवार्य सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए राधिक देवी एलोपैथिक चिकित्सालय माता सरस्वती होमियापेथिक अस्पताल मुख्य आश्रम में बनवाए।
इस प्रकार अपने नाम हरप्रकाश के अनुरूप हर व्यक्ति के हृदय में एक ज्योति जलाकर आर्य समाज का ये महान सपूत 23 दिसम्बर 1974 को सदा-सदा के लिए इस संसार को छोड़ गया। आर्य वानप्रस्थ हरिद्वार की मुख्य शाखा में निर्मित महात्मा हर प्रकाश स्तूप आज भी उनकी याद दिला देता है। आश्रम में महात्मा हरप्रकाश संस्कृत विद्यालय का भवन भी जहां संस्कृत अध्यापन के साथ—साथ पुस्तकालय की सुविधा भी प्रदान की गई है।
आश्रम के उद्देश्य
1- आर्य विरक्त वानप्रस्थ संन्यासी नर-नारियों के एकांतवास एवं चिंतन, वेदादि शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने, मन और इंद्रियों को जीतकर योगाभ्यास करने, आत्मा-परमात्मा के ज्ञान के लिए नाना प्रकार के उपनिषद अर्थात ज्ञान और उपासना-विधायक श्रुतियों के अर्थों के विचार की व्यवस्था करना।
2- क- आश्रमवासियों को वैदिक धर्म एवं संस्कृति का सैद्धांतिक एवं वैदिक कर्मकाण्ड का क्रियात्मक बोध कराना और उनका साधारण जनता में प्रचार करना।
ख- आश्रमवासियों को रहन-सहन, खान-पान एवं वेशभूषा में सादगी व मितव्ययता अपनाने के लिए प्रेरित करना और साधारण जनता के नैतिक उत्थान के लिए प्रचार करना।
ग- छुतछात का निवारण करने एवं जाति-भेदों को दूर करने की दृष्टि से अंदर तथा बाहर ग्रामादि में प्रचार करना।
3- आश्रमवासियों तथा आगत महानुभावों को संस्कृत तथा हिंदी का बोध कराने तथा साधारण ज्ञान-वर्धन की दृष्टि से ज्ञान गोष्ठियों, पुस्तकालय तथा वाचनालयों की व्यवस्था करना।
4- आश्रमवासियों एवं साधारण जनता के हितार्थ वर्तमान औषधालयों के संचालन एवं उन्नति और विस्तार के लिए प्रयत्न करना।
5- निर्धन छात्रों को शिक्षा दिलाने में सहायता करना तथा छात्रों में अनुशासन, राष्ट्रीयता नैतिक एवं वैदिक संस्कृति के प्रति प्रेम उत्पन्न करने के लिए प्रेरित करना।
6- वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए नैतिक तथा आध्यात्मिक साहित्य का सृजन एवं प्रकाशन करना और उसे जनता तक पहुंचाना।
7- उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त विभिन्न स्रोतों से दान प्राप्त करना और उसके उचित उपयोग की व्यवस्था करना।
आश्रम की कुटियां तीन प्रकार की है
1- केवल पुरुषों के लिए।
2- केवल महिलाओं के लिए।
3- पति-पत्नी के लिए।
सब कुटियों में बिजली व पानी की सुविधा है। प्रथम दो प्रकार की कुटियों में अलग शौचालय, स्नानगृह तथा रसोई की व्यवस्था नहीं है। पर तीसरे प्रकार की कुटिया में अलग से शौचालय आदि की सुविधा है। आश्रम का एक भोजनाालय है जहां लागत मात्र मूल्य पर सात्विक व पौष्टिक भोजन प्राप्त किया जा सकता है।
आश्रम में स्थायी रूप से निवास करने वाले व्यक्तियों की संख्या 350 के लगभग है। इनके अतिरिक्त अनेक वानप्रस्थी, संन्यासी तथा गृहस्थ समय-समय पर आश्रम में आकर सत्संग का लाभ उठाते हैं। जिन लोगों ने आश्रम में अपने लिए कुटियां बनवाई हों या बाद में मूल्य देकर प्राप्त की हो, उन्हें जीवन प्रर्यंत उनमें रहने का अधिकार होता है। अन्य व्यक्तियों को भी स्थायी व अस्थायी रूप से निवास की सुविधा प्रदान की जाती है। सबके लिए महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को मानना एवं आचार-व्यवहार रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा आदि के संबंध में आश्रम के नियमों का पालन आवश्यक है। आश्रम में कुटियों का केाई किराया नहीं लिया जाता, पर बिजली, पानी यज्ञ, सफाई-कर्मचारी आदि के खर्च के लिए नाममात्र धनराशि अवश्य ली जाती है।
आश्रम में प्रवेश के नियम
1- इस आश्रम में पचास वर्ष की आयु से अधिक आयु वाले केवल वे नर-नारी ही प्रवेश पा सकते हैं जो किसी आर्यसमाज के सदस्य रहे हों और वैदिक कर्मकांड, संध्या-हवन आदि करते हों।
2- आश्रमवासियों के अतिरिक्त कोई व्यक्ति प्रधान या उनके द्वारा नियुक्त व्यक्ति की आज्ञा के बिना आश्रम में नहीं जा सकता।
3- आश्रम में कोई व्यक्ति प्रधान की आज्ञा से केवल एक मास तक निवास कर सकता है, इससे अधिक अवधि के लिए आश्रम की अंतरंग सभा की स्वीकृति से आज्ञा दी जा सकती है।।
4- आश्रम में मद्य, मास आदि अभक्ष्य पदार्थ खाना और सेवन करना किसी प्रकार का जुआ, ताश, चौपड़ा आदि खेलना वर्जित है। मद्य के अंतर्गत समस्त प्रकार के नशे शामिल हैं। तंबाकू खाना, पीना सूंघना भी निषिद्ध है।
5- आश्रमवास के इच्छुक नर-नारियों का स्वस्थ होना अनिवार्य है, क्योंकि यथासंभव अपना कार्य स्वयं करना होता है। आश्रम का सेवन किसी विशेष अवस्था में ही उनकी सहायता कर सकता है।
6- आश्रमवासियों को अपनी रूचि, सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार आश्रम-प्रधान के अनुरोध पर आश्रम में सेवा कार्य करना एवं अपनी कुटिया के बाहर सफाई आदि रखना आवश्यक है।